मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

अजामिल 3

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! उन
भगवान्के पार्षद महात्माओंका केवल थोड़ी ही देरके लिये सत्संग हुआ था। इतनेसे ही अजामिलके चित्तमें संसारके प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबके सम्बन्ध और मोहको छोड़कर हरद्वार चले गये ।। ३९।। 
उस देवस्थानमें जाकर वे भगवान्के मन्दिरमें आसनसे बैठ गये और उन्होंने योगमार्गका आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर मनमें लीन कर लिया और मनको बुद्धिमें मिला दिया ।।४०।।
इसके बाद आत्मचिन्तनके द्वारा उन्होंने बुद्धिको विषयोंसे पृथक् कर लिया तथा भगवान्के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्ममें जोड़ दिया ।।४१।।
इस प्रकार जब अजामिलकी बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृतिसे ऊपर उठकर भगवान्के स्वरूपमें स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिलने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ।।४२।। 
उनका दर्शन पानेके बाद उन्होंने उस तीर्थस्थानमें गंगाके तटपर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान्के पार्षदोंका स्वरूप प्राप्त कर लिया ।।४३।। 
अजामिल भगवान्के पार्षदोंके साथ स्वर्णमय विमानपर आरूढ़ होकर आकाशमार्गसे भगवान् लक्ष्मीपतिके निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये ।।४४।।
परीक्षित् ! अजामिलने दासीका सहवास करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्मके कारण पतित हो गये थे। नियमोंसेच्युत हो जानेके कारण उन्हें नरकमें गिराया जा रहा था। परन्तु भगवान्के एक नामका उच्चारण करनेमात्रसे वे उससे तत्काल मुक्त हो गये ।।४५।। 
जो लोग इस ससांरबन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिये अपने चरणोंके स्पर्शसे तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले भगवान्के नामसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नामका आश्रय लेनेसे मनुष्यका मन फिर कर्मके पचड़ोंमें नहीं पड़ता। भगवन्नामके अतिरिक्त और किसी प्रायश्चित्तका आश्रय लेनेपर मन रजोगुण और तमोगुणसे ग्रस्त ही रहता है तथा पापोंका पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता ।।४६।।

परीक्षित् ! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्तिके साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरकमें कभी नहीं जाता। यमराजके दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देखतक नहीं सकते। उस पुरुषका जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोकमें उसकी पूजा होती है ।।४७-४८।। 
परीक्षित् ! देखो - अजामिल-जैसे पापीने मृत्युके समय पुत्रके बहाने भगवान्के नामका उच्चारण किया ! उसे भी वैकुण्ठकी प्राप्ति हो गयी ! फिर जो लोग श्रद्धाके साथ भगवन्नामका उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ।।४९।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धेऽजामिलोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।

* इस प्रसंगमें 'नाम-व्याहरण' का अर्थ नामोच्चारणमात्र ही है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-

यद् गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम् ।

ऋणमेतत् प्रवृद्धं मे हृदयान्नापसर्पति ।।

'मेरे दूर होनेके कारण द्रौपदीने जोर-जोरसे 'गोविन्द, गोविन्द' इस प्रकार करुण क्रन्दन करके मुझे पुकारा। वह ऋण मेरे ऊपर बढ़ गया है और मेरे हृदयसे उसका भार क्षणभरके लिये भी नहीं हटता ।

† 'नामपदैः' कहनेका यह अभिप्राय है कि भगवान्का केवल नाम 'राम-राम', 'कृष्ण-कृष्ण', 'हरि-हरि', 'नारायण नारायण' अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये-पापोंकी निवृत्तिके लिये पर्याप्त है।

'नमः नमामि' इत्यादि क्रिया जोड़नेकी भी कोई

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